बस्ती(उत्तर प्रदेश):- ब्लाक बहादुरपुर महुआ डाबर का इतिहास आजादी की लड़ाई में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए लेकिन अफ़सोस यह है कि आज भी इतने साक्ष्य मिलने के बावजूद भी इतिहास के धरोहरों में इसको उपेक्षित समझा जा रहा है. फिरंगियों को हिन्दुस्तान से खदेड़ना महान लड़ाका टीपू सुल्तान ने अपने जीवन का मकसद बना लिया था. टीपू सुल्तान की 225वीं शहादत दिवस पर सैय्यद नसीर अहमद द्वारा लिखित ‘टाइगर ऑफ मैसूर टीपू सुल्तान’ पुस्तक का विमोचन क्रांति की धरती महुआ डाबर में किया गया. इस पुस्तक का विमोचन करते हुए महुआ डाबर क्रांति स्मारक समिति के संयोजक आदिल खान ने महुआ डाबर का इतिहास बताते हुए कहा कि 1857 की क्रांति से पहले महुआ डाबर पहुंचे बुनकरों में कुछ ऐसे भी थे, जिनके पूर्वजों के हाथ अंग्रेजों ने काट डाले थे. उनके मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था. इसलिए 1857 में विद्रोह की चिंगारी जब महुआ डाबर पहुंची तो उनका खून भी उबलने लगा. बुनकरों ने छापामार दल का गठन किया, जिसमें पिरई खां और जाकिर अली जैसे बहादुर बुनकर शामिल थे. महुआ डाबर की कहानी शुरू होती है सैनिक विद्रोह से सैन्य विद्रोह की शुरुआत 10 मई, 1857 को मेरठ से हुई थी. जल्दी ही दिल्ली से लेकर कानपुर, लखनऊ, झांसी आदि क्षेत्र उसके प्रभाव में आने लगे. उनकी देखा-देखी फैजाबाद में 22वीं नैटिव इन्फैंट्री ने 8 जून, 1857 को विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. फैजाबाद पर कब्जा करने के बाद उन्होंने वहां मौजूद अंग्रेज सैन्य अधिकारियों को अपने अधिकार में ले लिया. किंतु एक रात कैद रखने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को वहां से चले जाने को कहा. साथ ही, उन्होंने अंग्रेज सिपाहियों की यात्रा का इंतजाम करने के साथ-साथ उन्हें अपने हथियार भी साथ ले जाने की अनुमति दे दी. अगले दिन यानी 9 जून, 1857 की सुबह 22 अंग्रेज सैन्य अधिकारी घाघरा नदी के रास्ते दीनापुर (वर्तमान में, दानापुर, पटना) छावनी जाने के लिए चार नावों पर सवार होकर निकल पड़े. जब वे बेगमगंज के करीब से गुजर रहे थे, तब उनका सामना आजमगढ़ की 17वीं नैटिव इन्फेंट्री के विद्रोही सैनिकों से हुआ. उस लड़ाई में जान बचाकर भाग रहे अंग्रेजों की दो नावें डुबा दी गईं. फैजाबाद के सुपरिटेंडेंट कमीश्नर कर्नल गोल्डने, सार्जेंट मेजर मैथ्यू और ब्राइट उस संघर्ष में मारे गए. जबकि मिल, करी और पारसन ने खुद को बचाने के लिए नदी में छलांग लगा दी और वे भी डूबकर मर गए. बाकी बचे अंग्रेज सैन्य अधिकारी बचते-बचाते 10 जून, 1857 को कप्तानगंज (बस्ती) पहुंचे. वहां के तहसीलदार ने उनका स्वागत किया. बताया कि बस्ती में विद्रोही सैनिकों ने डेरा डाला हुआ है. इसलिए उनका वहां जाना सुरक्षित नहीं है. उन्होंने सैनिकों को गोरखपुर जाने की सलाह दी. तहसीलदार ने रास्ता दिखाने के लिए एक जमादार के अलावा पांच खच्चर, सुरक्षा के लिए तीन बंदूकची और रास्ते के खर्च के लिए पचास रुपए भी दिए.तहसीलदार के कहे अनुसार अंग्रेज अधिकारियों का कारवां आगे बढ़ गया. करीब 13 किलोमीटर की यात्रा के बाद वे महुआ डाबर पहुंचे. वहां साथ चल रहे बंदूकचियों में से एक ने कहा कि वे उस गांव में कुछ देर के लिए आराम कर सकते हैं. इतना कहकर वह सुरक्षित ठिकाने और खाने-पीने की चीजों का प्रबंध करने के लिए आगे बढ़ गया. उसके बाद की घटना का वर्णन प्रत्यक्षदर्शी सार्जेंट बुशर ने अपने बयान में किया था, उसके अनुसार– “हम आगे बढ़ गए. कुछ भी संदेहास्पद नहीं था. हमें अपनी सुरक्षा का भरोसा हो चला था. जैसे ही हम गांव के पास पहुंचे, वह बंदूकची हमें फिर दिखाई दिया. वह दो अन्य व्यक्तियों से बात कर रहा था. उसके पास पहुंचते ही हम भय से कांप उठे. पूरा गांव हथियारों के साथ तैयार था. बिना कोई टिप्पणी किए हम तीन सिपाहियों के पीछे-पीछे चुपचाप आगे बढ़ते गए. गांव के पार होते ही हमें एक नाला दिखाई पड़ा. नाला बहुत गहरा नहीं था. हम उसमें पार जाने के लिए उतर पड़े. अचानक गांववालों ने बंदूक और तलवार से हमपर हमला बोल दिया. यह देख हमने जल्दी से जल्दी नाला पार करने की कोशिश की. लेफ्टिनेंट लिंडसे हमलावरों की पकड़ में आ गए. उन्होंने उन्हें वहीं टुकड़े-टुकड़े कर दिया. जैसे ही हम नाले के दूसरे सिरे पर पहुंचे, गुस्साए गांववाले हम पर टूट पड़े. उन्होंने हमला करके हमारे दल के पांच सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया. मैं और लेफ्टिनेंट कॉटली वहां से भागने में कामयाब हो गए. लेकिन भीड़ हमारे पीछे थी. लगभग 300 मीटर तक दौड़ने के बाद कॉटली की हिम्मत जवाब दे गई. वे जमीन पर गिर पड़े. हमलावरों ने उन्हें भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया.” सार्जेंट बुशर किसी तरह खुद को बचाने में कामयाब हो गया. उसने एक गांव में शरण ली, जहां से उसे विलियम पेपे, डिप्टी मजिस्ट्रेट ने सुरक्षित बाहर निकाल लिया. अंग्रेजी दस्तावेजों में महुआ डाबर के क्रांतिकारियों के मुखिया के रूप में जाफ़िर अली का नाम दिया गया है, जबकि दैनिक जागरण सहित दूसरे अखबारों के में पिरई खान को महुआ डाबर की गुरिल्ला टुकड़ी का मुखिया बताया गया है. आगे आदिल खान ने यह पुस्तक पढ़ने पर जोर देते हुए कहा कि काफी शोध करके दस्तावेजों के हवाले से यह पुस्तक लिखी गई है. जो कई रहस्यों और गल्तफहमियों से पर्दा उठाती है. इस पुस्तक को आजाद हाउस ऑफ पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है.पुस्तक विमोचन के दौरान फकीर मोहम्मद खान रामकेश, दिलशाद अहमद, हैदर अली, विजय प्रकाश, मों रफीक, रवि आदि मौजूद रहे.
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