- झूठा दिख रहा है रेलवे का दावा, चार गुना बढ़ी दलालों की इनकम
दिनेश कुमार/मुंबई. रेलवे के तमाम दावों के बावजूद आम आदमी की जीवन रेखा मानी जाने वाली भारतीय रेल में आम आदमी की जो दुर्दशा आज देखने को मिल रही है, वह पहले कभी नहीं दिखी. ऐसा दिख रहा है कि अब भारतीय रेल भी आम आदमी के लिए या तो है ही नहीं और थोड़ा बहुत है भी तो उसमें आम आदमी जानवरों की तरह बनकर रह गया है. देश की जनसंख्या बढ़ रही है लेकिन ट्रेनों की संख्या, ट्रेनों में सीटें लगातार घटती जा रही हैं. इस साल नवम्बर महीने में तो पब्लिक का बहुत ही बुरा हाल रहा है. जहाँ हर साल लोग दिवाली की छुट्टियों में गांव जाते रहे हैं, वहीं इस वर्ष लाखों लोग इसलिए नहीं जा पाए क्योंकि ट्रेनों का टिकट ही नहीं मिल पाया. जो लोग गये वे या तो 4 महीने पहले टिकट ले चुके थे या चार गुना अधिक पैसा दलालों को देकर टिकट लेकर गये. उनमें से भी बड़ी संख्या में लोगों को चार गुना अधिक पैसा देने के बावजूद भी टिकट नहीं मिला.
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, बांद्रा टर्मिनस, मुंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर लाखों लोगों की भीड़ पर पुलिस का पशुगत व्यवहार असहनीय है, ट्रेनों में भीड़ ऐसी कि इंसान जहाँ एक बार बैठ जाए वहां से उठकार शौचालय तक पहुंचना भी जंग लड़ने जैसा है. स्लीपर क्लास का टिकट होने के बावजूद भी यात्री सीढ़ियों पर बैठकर दो – दो दिनों की यात्रा कर रहे हैं, जबकि बड़ी संख्या में लोग भीड़ देखकर वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं. यह सिलसिला कोई एक दो दिन का नहीं बल्कि लगभग 3 हफ्तों से चल रहा है लेकिन रेलवे प्रशासन के कानो में जूं तक नहीं रेंग रहा है. कहने को तो रेलवे ने प्रेमियम तत्काल की व्यवस्था की है ताकि हर किसी को टिकट मिल जाए लेकिन इसमें हमेशा ही “नॉट अवेलेबल” ही रहता है, बस बुकिंग शुरु होने से पहले सीटें दिखती हैं.
अगर पिछले 10-15 सालों का रिकॉर्ड देखें तो दिवाली स्पेशल ट्रेनें चलती थी, जिसमें बढ़े यात्रियों को भी सीटें मिल जाती थी, परन्तु इस वर्ष इक्का-दुक्का ट्रेनें ही दिखाई दे रही हैं, जबकि रेलवे का दावा है कि वह उत्तर भारत के लिए 10 स्पेशल ट्रेने चलवा रही है. अगर 10 स्पेशल ट्रेने चल रही हैं तो लोगों को ट्रेन में टिकट क्यों नहीं मिल रहा है. क्या रेलवे लोगों के लिए इंतज़ाम करने में पूरी तरह फेल हो चुकी है या उसे यात्रियों का अंदाजा ही नहीं है?
<span;>उल्लेखनीय है कि यात्रियों संख्या जिस तरह से बढ़ रही है, रेलवे उस लिहाज़ से इंतज़ाम करने में पूरी तरह से नाकाम नज़र आ रही है. सवाल यह है कि क्या आम आदमी से अब जीवन रेखा समझी जाने वाली ट्रेनें भी दूर हो चुकी हैं या सरकार और प्रशासन इंसानो को पशु समझने लगा है.
दरअसल रेलवे से लेकर रेलमंत्री, रेलवे अधिकारी सिर्फ ए सी ऑफिसो में बैठकर ही सारा अनुमान लगा रहे हैं जो पूरी तरह से गलत साबित हो रहा है, यदि ज़मीनी हकीकत को समझना हो तो उन्हें संवेदनशील बनना होगा और एक बार टर्मिनस स्टेशनों पर जाकर हकीकत समझना होगा, जो वे कभी नहीं करेंगे.
इस सम्बन्ध में जानकारी लेने व रेलवे का पक्ष जानने के लिए मध्य रेलवे के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर ए. के. सिंह को फोन किया तो उन्होंने फोन ही नहीं उठाया.